Home उत्तराखंड पहाड़ की संस्कृति,रीति—रिवाज और को -कार्य का एक पौराणिक साथी -भडडु

पहाड़ की संस्कृति,रीति—रिवाज और को -कार्य का एक पौराणिक साथी -भडडु

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हमारे रीती-रिवाज़

पहाड़ की संस्कृति और रीति—रिवाज अपने आप में सम्पन्न, अनूठी और अद्भुत है. यह अपने में कई चीजों का समाए हुए है, पहाड़ की संस्कृति और रीति—रिवाज हमेशा एक कौतूहल और शोध का विषय रहा है. हमारी संस्कृति पर कुछेक शोध जरूर हुए हैं लेकिन वह ना के बराबर. हमारी प्राचीन संस्कृति पर अभी भी गहन अध्ययन, चिंतन और शोध की जरूरत है. क्योंकि आज हम जिस समाज और भाग दौड़ की दुनिया में एक दिखावे की सी जिंदगी जी रहे हैं, उसमे हमारी आने वाली पीढ़ी पहाड़ों की कई ऐसी चीजों से अनभिज्ञ रहने वाली है. इसका कारण कोई और नहीं हम ही हैं. क्योंकि आज हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं.

भड्डू का महत्व

आज मैं बात कर रही हूं एक ऐसे बर्तन की, जो हमारे रीति—रिवाज और संस्कृति का कभी अभिन्न अंग हुआ करता था. मैं जिस बर्तन की बात कर रही हूं उसका नाम भड्डू है. भड्डू को बनाने में बहुत चिंतन—मनन करना पड़ा होगा. ऐसी धातुओं का मिश्रण तैयार करने का विचार किया गया होगा जो अग्नि की ताप को सहन करने में सक्षम हो, जिसमें लौहा,पीतल,तांबा,और कांसा (जस्ता) आदि निश्चित मात्रा में मिले होते हैं ऐसी धातुओं के मिश्रण को त्रिकूट कहा जाता है. चूल्हे पर चढ़ाने, उतारने के अनुरूप इसे बटलोई का आकार दिया गया ताकि लुढ़कने से बचाव हो सके अतः तला कुछ सपाट कर दिया गया.

भड्डू से सिर्फ और सिर्फ पहाड़ों में पले बढ़े लोग और रहने वाले ही परिचित हो सकते हैं या दूर प्रवास में रहने वाले लोग जब कभी कभार अपने गांव आए होंगे तो उनका भी इससे परिचय हुआ होगा या नहीं भी, क्योंकि वर्तमान समय में गिने—चुने घरों में ये बर्तन देखने को मिलेगा. एक बार इस बर्तन में बनी दाल का स्वाद अगर आपकी जीभ चख ले तो जीवन भर वो स्वाद आप भूल नहीं सकते. इस भड्डू ने एक प्रचलित मुहावरे कि “पहाड़ों में दाल नहीं गलती है” को भी झूठा कर दिखाया है, एक बार जब दाल भड्डू पर चूल्हे पर चढ़ जाती है तो गलकर ही रहेगी और सिर्फ दाल ही नहीं शिकार, ख्वाजा-बुखणा, तोर-रंयास या किसी भी प्रकार की दाल गल जाती है. भड्डू के मुंह पर पानी भरा बर्तन को ढ़क्कन जैसा बनाकर रखा जाता है जो कि भाप को बाहर नहीं जाने देता है. चूल्हे पर चढ़ाने से पहले इसके बाहरी भाग पर चारों तरफ से गीली मिट्टी, राख से जमकर पुताई की जाती है और पुताई के बाद दाल और पानी को निश्चित मात्रा में डालकर जलते चूल्हे पर चढ़ाया जाता है.


भीमल, बांज, खड़िक की लकड़ी को चूल्हे में झौंक दिया जाता है, जो धीरे—धीरे जलकर दाल को गला देती है.पहाड़ों में काम का बोझ हमेशा ही रहा है और खासकर खेती किसानी करने वाली महिलाएं जब अपने खेतों के काम करने जाती हैं या घास—पास लेने जाती हैं या पशुओं को दूर जंगल में चराने ले जाती हैं तो वह घर पर भड्डू में दाल चढ़ाकर जाती थी और जब वापस आती थी तो उसको दाल पकी हुई मिलती थी. इससे उनका दाल बनाने का समय भी बच जाता था और उसको स्वाद से भरपूर दाल भी खाने को मिल जाती थी. यही क्रम रात के समय का भी था रसोई के सारे काम खत्म करके सुबह की दाल रात को ही भड्डू में चढ़ा दी जाती थी, क्योंकि मिट्टी के चूल्हे में अंगारों की ताप 6 से 8 घंटे आराम से रहती है. भड्डू मांजना एक बहुत ही कष्ठसाध्य कार्य माना जाता है. पुताई के समय राख मिट्टी आग के कारण चिपक जाती है जिसे छुड़ाना आसान काम नहीं होता. कभी—कभार एक कहावत भी सुनने में आती है कि “भड्डू मंजवा दूंगा” इसीलिए ये कहावत भी बनी होगी।

पौराणिक इतिहास


पहाड़ों में शादियों में भड्डू में दाल बनाई जाती थी और पंगत में बैठकर दाल और भात खाने का अपना अलग ही मजा होता था और अगर साथ में लाल भूनी मिर्च हो तो मन तृप्त हो जाता था. वर्तमान समय में चाहे हम अपने घरों की बात करें या किसी भी शादी—ब्याह या पार्टी की बात करें, तो न भड्डू में बनी दाल का स्वाद है मिलता है न वो मिठास. आजकल शादी—ब्याह में बनने वाले खाने में चाहे दाल हो या अन्य सब्जियां उनमें दुनियाभर के मसालों का प्रयोग करके उसके वास्तविक स्वाद को खो देते हैं. इन मसालों से हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. ये मसाले बदहजमी, कब्ज और एसिडिटी बिमारियों को जन्म दे रहे हैं, जो कि हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं, जबकि भड्डू में बनी दाल से कब्ज एसिडिटी होने के चांस बहुत कम होते हैं।


गांव घरों का भी हाल कुछ अच्छा नहीं है. लोगों ने देखा—देखी में मिट्टी के चूल्हे से दूरी बना ली है, आज कल गांव—देहात में भी लोग गैस के चूल्हे का ज्यादा उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिट्टी के चूल्हे में खाना बनाने से बर्तनों की साफ सफाई में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जो कि लोगों को पसंद नहीं है. गैस सिलेंडर बचाने के लिए इंडक्शन बिजली से खाना बनाने वाला चूल्हा भी पहाड़ चढ़ चुका है और साथ में नॉन स्टिक बर्तन भी अपने साथ पहाड़ ले आया है. लोगों को लगता है कि इससे उनका समय भी बचेगा और गैस सिलेंडर की खपत भी कम होगी और बर्तन धोने में भी सहूलियत रहेगी. आज जब ये सब हो रहा है तो भड्डू कहां से देखने को मिलेगा. गैस चूल्हे और इंडक्शन पर भड्डू में दाल नहीं पक सकती, इसी वजह से आज की पीढ़ी भड्डू और उसमें बनने वाली दाल के स्वाद से अपरिचित है।वर्तमान समय में बाज़ार में भड्डू की जगह प्रेशर कुकर, सौर कुकर, इलेक्ट्रिक कुकर आदि ने ले ली है. भड्डू आज की आधुनिक जीवन शैली में यदि दिखता भी है इसकी उपयोगिता ना के बराबर है और यदि कहीं दिख भी जाय तो वो सिर्फ और सिर्फ घर में बने शोकेस में एक एंटीक पीस जैसा रखा हुआ है.

2 COMMENTS

  1. डोभाल जी बहुत सुंदर लेख लिखा आपने
    आपको मेरी और से बहुत बहुत धन्यवाद
    जो आपने हमारी संस्क़ृति हमारी पहचान के बारे में समय निकालकर इसकी पूरी जानकारी दी
    इस लेख को पढ़कर बचपन की याद ताजा हो गई

    बहुत सुंदर लेख
    बहुत बहुत बधाई

  2. अपड़ी पुरानी रीति रिवाज
    जय देवभूमि जय उत्तराखंड में राहुल गोस्वामी(rahulgoswami6085) आज आपसे एक सवाल करता हूं कमेंट में जरूर बताएं
    आखिर क्यों
    न जाने क्यों हम धीरे-धीरे अपने पहाड़ को छोड़े जा रहे हैं वहां का ठंडा पानी हमारा प्यारा उत्तराखंड जहां बाज बुराश की जड़ों से कितना सुंदर ठंडा पानी बहता हुआ आज हम उस पहाड़ को छोड़ रहे हैं आखिर क्यों
    वहां की रीति रिवाज वहां की संस्कृति देवी देवताओं के स्थान (केदारनाथ बद्रीनाथ तुंगनाथ पांच बद्री पांच केदार पंच प्रयाग मा धारी देवी🙏) सब वही बसे हैं इतना सुंदर है हमारा पहाड़ ❤️भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवा
    अफ़सोस, अपनी पहाड़ी सख्सियतों को ही मंच देना भूल जाती है उत्तराखंड सरकार

    होटलों की आन बान शान हैं पहाड़ी शेफ, फिर क्यों अपनी पहचान के मोहताज रह हम उत्तराखंडी

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