आज बेहतर जिंदगी की रेस में वक्त इस कदर तेजी से आगे निकल रहा है कि पीछे छूटे किस्सों को भी याद करने का वक्त नहीं मिलता। आजकल त्यौहार तो मानो बस सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गए हों। लेकिन वक्त सुई को रोककर थोड़ा पीछे के लम्हों को टटोलने की कोशिश करता हूं तो याद आते हैं वह सुनहेरे लम्हें जो आज की इस चकाचौंध में बस यादें बनकर रह गए हैं।
आज बसंत पंचमी का त्यौहार है और इस त्यौहार को कई मायनों में शुभ पर्व माना जाता है। तो चलिए आपको लिए चलता हूं मैं अपने बचपन की एक बसंत पंचमी में,
बसंत पंचमी का नाम सुनते ही मेरे घर में एक खास तरह का कौतूहल रहता था। ख़ासकर मेरी दीदी और मेरे में। हमारे बीच होड़ रहती थी कि सुबह सुबह कौन सबसे पहले 4:00 बजे उठकर नहायेगा, और अंदर ही अंदर एक डर भी रहता था कि इतनी ठंड में नहायें तो नहाए कैसे।( प्रथा के अनुसार बसंत पंचमी के मोके पर सुबह 4:00 बजे के पर्व को काफी शुभ माना जाता है) सोच विचार में आंखें मुंदी तो पता ही नहीं चला कि नींद ने कब अपनी आगोश में ले लिया। उसके बाद जब आंखें खुली तो समय था सुबह के 6:00 बजे का।
आंखें पूरी खुली भी नहीं खुली थी कि सर पर हाथ फेरा तो लाल टीके से सर भरा हुआ था,बसंत पंचमी के मौके पर पहाड़ों में सुबह के समय घर के सदस्यों को चंदन या पिंटाई लगाई जाती हैं। जब तक आंखें पूरी तरह से खुली तब तक एहसास हो चुका था कि 4:00 बजे उठ के नहाने का सपना बस सपना ही रह गया। मगर मम्मी ने 4:00 बजे उठकर, गर्म पानी से नहाधोकर खुद के और हमारे सर पर भी लाल टीका लगा दिया था। 4 बजे न उठ पाने की निराशा के बाद जैसे-तैसे उठा,पानी गर्म किया और नहा लिया। ठंड इतनी कि पूछो मत वह भी पहाड़ों में मौ-फागुन के महीने में जहां सुबह का तापमान 1 से लेकर – 2 तक रहता है तो वहाँ गर्म पानी की क्या पेश चलती।
नहाने के बाद तो सीधे चूल्हे का रुख किया ताकि थोड़ा आग सेक सकूँ, थोड़ी ही देर में धूप का आगमन भी हो गया। यूं तो पंचमी के दिन अक्सर देखा गया कि आसमान में बादल जरूर रहते ही रहते हैं मगर सुबह की धूप के दर्शन आपको जरूर हो जाएंगे खासकर हमारे यहां से। धूप जैसे जैसे ढल रही थी वैसे वैसे पंचमी का खुमार भी बढ़ रहा था।
पंचमी के पर्व पर मेरा सबसे पहला काम था देवता के मंदिर के लिए खेतों से फूल इकट्ठा करना। पंचमी के मौके पर मेरे दादा जी हमारे स्थान के सभी देवी देवताओं को स्नान करवाते हैं और पूजा पाठ करके उन्हें रोट प्रसाद चढ़ाते हैं। पेड़ों से गुलाब,गेंदा,लाई के फूल इकट्ठा करने के बाद मैंने वह फूल मंदिर में रख दिये, और उसके बाद निकल पड़ा अपने पास के खेतों में जहां पर जौ के नए नए पौधे लहरा रहे थे वहां से दो तीन मुठी जौ के पेड़ यानी की हरियाली और सरसों के कुछ पौधे इकट्ठा कर वापस घर की ओर आ गया उसके बाद घर में गाय के गोबर को एक परात में इकठ्ठा कर उसमें जौ,लई के पेड़ों को डुबोकर उन्हें घर के मोरसंगाड़ यानी कि दरवाजे के ऊपर लगाने का काम शुरू हो गया था। सभी दरवाजों पर हरियाली लगाने के बाद मौका था देवताओं के लिए भोग के रूप में बने रोट खाने का, रोट वह भी जब शुद्ध घी और गुड़ के बने हों तो तब उनका आनंद ही अलग होता है।
रोट खाने के बाद में कुछ रोट पास के घर में भी दे आया था, पंचमी का दिन जैसे जैसे ढल रहा था वैसे वैसे आसमान में बादलों की रफ्तार भी बढ़ रही थी। थोड़े ही समय में जब तक मैं कुछ काम निपटा पाता तब तक 9:00 वाली गाड़ी से मेरी बुआ जी भी आ गई थी उनके आने की जितनी खुशी होती थी उससे भी ज्यादा इस बात की खुशी होती थी कि वह कुछ तो लायी होंगे खाने के लिए, और उस समय चलन था कोकोनट बिस्किट जलेबी या तो पीले बूंदी के लड्डू का। बुआ के लाए बिस्किट को खाने के बाद थोड़ा गपेंशपें लगी ही थी कि थोडी देर में मेरी दूसरी बुआ भी आ गई थी। उनके आने से मानों खुशी और दुगनी हो चली थी। थोड़े समय बाद मेरी पुफ़्फ़ु (बुआ) ने मुझे बुरांश के फूल लाने के लिए भेज दिया। उस समय हमारे घर के पास के खेत में एक बुराँश का पेड़ हुआ करता था। जिसपर बसंत पंचमी तक कई फूल लग जाया करते थे। उस पेड़ से बुरांश के फूलों को लाने के बाद मेने सबसे पहले तो एक बुरांश का फूल देवता को चढ़ाया। क्योंकि पहाड़ों में कोई भी वस्तु नवाग के तौर पर सबसे पहले देवता को चढ़ाई जाती है।
बुरांश का फूल देवता को चढ़ाने के बाद हम बाकी बुरांश के फूलों का आनंद लेने लगे। बुरांश के फूलों के बाद जल्द ही दिन का खाना भी बन गया। जो कि हम सब ने साथ मिलकर किया। दिन का खाना खाने के कुछ देर बाद मेरी दादी जी ने स्वाले, गुलगुले,पकोड़े बनाने की तैयारी भी शुरू कर दी। क्योंकि पहाड़ों में रिवाज होता है कि मायके आई हुई महिलाओं ओर बेटियों को कुछ मीठा भेंट स्वरूप दिया जाता है, खासकर लोक पर्व के मौके पर ।
इस बीच जब तक हम यहां वहां की गप्पे लगाते तब तक मेरी दादी ने स्वाले, गुलगुले बनाने का काम भी फटाफट निपटा दिया था। मेरी दादी ने कुछ स्वाले गुलगुले चाय के साथ हमें दे दिए और कुछ मेरी दोनों पुफ़्फों लिए एक थैली में पैक भी कर दिए।
शाम के 3 कब बजे,इस बात का पता ही नहीं चला,थोड़े ही समय में मेरी एक पुफ़्फ़ु (बुआ) की 3 वाली बस भी आ गई और वह नम आँखों और ढेर सारे प्यार के साथ अपने ससुराल के लिए निकल गई। फिर लगभग आधे घंटे बाद मेरी दूसरी बुआ की 4 वाली बस भी जल्द ही आ पहुंची थी।उस समय पहाड़ों में समय-समय पर सरकारी बसें हुआ करती थी जो हर 1 घण्टे में आतिजाति रहती थी। वह भी अपने साथ मायके से स्वाले, गुलगुले का क्लयो और बहुत सारा प्यार लेकर अपने ससुराल के लिए चली गयीं।
अब अपनी ध्यांणियों की विदाई के बाद मैं पास ही सड़क पर दोस्तों के साथ खेलने के लिए चला गया और बाकी घर वाले यहां वहां के कामों में व्यस्त हो गए।और इस तरह से मेरे बचपन की एक बसंत पंचमी का दिन भी निकल गया।
बचपन की वह बसंत पंचमी ओर वो लम्हें आज भी मेरे मन में बसे हुए हैं। आज भी शहरों में रहकर इस पर्व और उन लोगों को याद करता हूं तो मन रूठ जाता है कि समय कितना आगे निकल गया है और कितना तेजी से आगे निकल रहा है ओर पीछे के लम्हें बस यादें बनकर रह गए हैं । आपको मेरे बचपन की यह बसंत पंचमी कैसी लगी मुझे कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
bahut 😍Sundar❤️