आज तक आपने और हमने पहाड़ों में हर जगह कई घुघूती देखे होंगे,मटमैले रंग और काली काली गोल बिन्दों से सज़ा यह पक्षी उत्तराखंड के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाता है। उत्तराखंड के लोगों को इस पक्षी से काफी लगाव भी है साथ ही इससे पहाड़ों में कई मान्यताएँ भी जुडी हैं। पहाड़ों में घुघुती ख़ास धियाँणो के संदेश को मायके तक पहुँचाने वाले वाहक के रूप में काफ़ी प्रचलित है जिस से जुड़े कई लोकगीत भी हमें सुनने को मिले हैं जिनमें घुघुती घुरोंण लगी मेरी मैत की, आमे की डाल म न बस घुघुती,किंगरी का झाला घुघूती, पंगरी का डाला घुघूती,घुघुती बासुती,मैतै की घुघुती,घुघूती घुर घुर
जैसे कई गीत काफ़ी पॉपुलर हैं.तो आज हम इस धियाँणी के ख़ास संदेश वाहक के बारे में जानेंगे।
घुघुती या फाख्ता का अंग्रेजी नाम (Spotted Dove) है जो की कबूतर परिवार का ही एक सुन्दर पक्षी है। इसका पक्षी का वैज्ञानिक नाम Streptopelia है। भारत में इसे अलग -अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे कि पर्की, चित्रोखा, फाख्ता, घुघूती, घुघु इत्यादि, लेकिन पहाड़ों में इसका सबसे प्रचलित नाम घुघुती या घुगता है। यह उत्तराखंड में लगभग सभी जगह पाया जाता है और इसकी लंबाई क़रीब 30 सेंटीमीटर तक होती है।
चितकबरे रंग के इस पक्षी के गले में काले रंग की पट्टी व सफेद धब्बे से इसे पहचाना जा सकता है। घुघती जंगल,मानव बस्तियों या खेतों में सभी जगह पाया जाता है। यह अधिकतर जोड़ो या समूहों में देखने को मिलता है। जिसमें नर और मादा लगभग एक से दिखाई देते हैं। पेड़ की शाखाओं पर या छत की मुण्डेर पर या किसी तार पर जब यह अकेली उदास सी बैठी होकर कुछ गाती है तो उसका उच्चारण ‘घु-घू-ती’ प्रतीत होता है जिससे इसका नाम ही ‘घुघूती’ या घुघु पक्षी पद गया। यह आबादी के आसपास या जन्तुओं तथा मनुष्य के सम्पर्क में रहना अधिक पसन्द करता है। यह घोसला घरों में नहीं प्रायः पेड़ों की डाल पर या छोटी झाड़ियों के ऊपर बनाता है। आकार व रूप के आधार पर गढ़वाल में तीन प्रकार की घुघूती है। एक घुघूती जो आकार में सबसे बड़ी होती है और उसके गले में दो काली चूड़ी बनी होती है उसे ‘माल्या घुघुती’ कहते हैं। यह लगभग सिलेटी रंग के कबूतर के आकार की होती है। अंग्रेजी में इसे Eurasian Collared Dove कहते हैं। ‘माल्या’ घुघूती से थोड़ी छोटी व जिसकी गर्दन के पार्श्व भाग तथा पीठ पर मसूर के आकार व रंग के असंख्य दाने से दिखायी देेते हैं, को ‘मसुर्याली’ घुघूती कहते है। अंग्रेजी में इसे Spotted Dove कहते हैं। ‘मसुर्याली’ घुघुती के ही आकार की किन्तु सामान्य रंग वाली घुघुती ‘काठी’ घुघुती कहलाती है। अंग्रेजी में इसे Laughing Dove कहते हैं। पहाड़ों में घुघुती हमारे दुख-दर्द से लेकर लोक संस्कृति का भी अभिन्न हिस्सा है। चैत-बैसाख की बात हो और उस में घुघुती का जिक्र न हो तो ऐसा भला कैसे हो सकता है । घुघुती के बिना गढ़वाल और कुमाऊँ के खुदेड़ (विरह) गीतों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
जिसका जिक्र हमें दादी-नानी की लोरियों से लेकर किताबों की कविताओं और कहानियों में जरूर मिलता है इन लोरियों में ‘घुघूती, बासुती, क्या खान्दी, दूधभाती…’ सबसे प्रचालित है लेकिन घुघुती का ख़ास जिक्र पहाड़ के लोकगीतों में मिलता है जिनकी अपनी ही एक अलग पहचान है यह गीत ख़ासकर पहाड़ की धियाँणियों द्वारा अपने मायाके की ख़ुद में लगाये जाते हैं जिसमें घुघुती का ख़ास जिक्र होता है और ऐसा माना जाता है की घुघुती उसके मायाके के रैबार को लेकर उसके पास जाती है। इसी खुद को दर्शाता हुआ एक एक प्रसिद्ध लोकगीत है जिसके बोल हैं ‘ना बास घुघुती चैत की, खुद लगीं च माँ मैत की..’ ( इस गाने के संदर्भ में एक धियाँयाण चैत के महीने में बासती हुई घुघुती से कहती है की ऐ चैत के महीने की घुघुती तू यूँ बासा न,तुझे यूँ बासता देखकर मुझे मेरी माँ की ख़ुद लगती है ). साथ ही नरेन्द्र सिंह नेगी जी का एक काफ़ी प्रसिद्ध गीत है जो की उत्तराखंड के लगभग हर वर्ग को काफ़ी भाया और आज भी उस गीत की लोकप्रियता पहले ही जैसी है इस गीत के बोल हैं
‘घुघुती घुराॅण लगीं म्यारा मैत की,
बौड़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु,ऋतु चैत की,
डांडी कांठियों को ह्यू, गौली गे होलू
म्यारा मेता को बोण , मौली गे होलू
डांडी कांठियों को ह्यू, गौली गे होलू
म्यारा मेता को बोण , मौली गे होलू
चखुला घोलू छोडी , उड़ना हा वला
चखुला घोलू छोडी , उड़ना हा वला
बेठुला मेतुड़ा कु , पेटना हा वला
घुगुती घुरोण लगी …….हो हो ..
घुगुती घुरोण लगी ..म्यारा मैत की..
बौडी बौडी ऐ गे ऋतू ,…ऋतू चेत की..
इस गीत के बाद घुघुती पर कई बने और वह लोगों द्वारा खूब पसंद भी किये गए।
Ghuguti Ghuraona Laigi – Garhwali Video Song
हिन्दी फिल्मों में भले ही कबूतर को पत्रवाहक के रूप में प्रदर्शित किया जाता हो लेकिन पहाड़ों में पत्रवाहक के रूप में घुघुती ही घुरू-ऊ-घू, घुरू-ऊ-घू… घु घू ती कर एक धियाँण को उसके मायके की याद दिलाती है। चैत – बैशाख आते ही घुघुतियों का झुंड हमारे आस – पास कोतूहाल करने लगता है गाँवों में घुघुती
चौक,तिबारी,खेतों,आँगन के पेड़ों,या छत की मुंडेर देखने को मिलती है और तब इन्हें देख के धियाँणियों को उनका मायकायाद आने लगता है। जिस से हम समझ सकते हैं की पहाड़ों में घुघुती एक धियाँण के मायके का साथी या पत्रवाहक होता है।
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