*Mother of chipko* के नाम से विश्व भर में जाने जानी वाली गोरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के चमोली जिले के लाटा गांव में हुआ था।
पांचवी तक की शिक्षा ग्रहण करने  वाली गोरा देवी का जीवन काफी संघर्षपूर्ण भरा रहा
मात्र 11 साल की उम्र में उनका विवाह रेणी गाँव के मेहरबान सिंह के साथ हो गया था और जब वह केवल 22 साल की थी तब उनके पति का देहांत हो गया था, तब उनका एकमात्र पुत्र चन्द्र सिंह था जिसकी उम्र मात्र ढाई साल की थी।
गोरा देवी का शुरुवाती वैवाहिक जीवन घर परवरिश में ही व्यस्त था वे अपने सास ससुर की सेवा के साथ साथ खेती बाड़ी और अपने पुत्र की देखभाल करती रही।


1962 में भारत और चीन के युद्ध में तो स्थिति और बदल गयी और चमोली के सीमांत गांवों के लोगों को काफी संघर्ष करना पड़ा
1972 में गोरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्ष बनी और 1973 के अंत तक गोविन्द सिंह रावत ,चंडी प्रसाद भट्ट,वास्वानंद नोटियाल ,हयात सिंह, और कई अन्य छत्र क्षेत्र में आये और रेणी गांव और आस पास में कई सारी सभाएं आयोजित की,
जनवरी 1974 में रेणी गांव के 2459 पेड़ों को काटने के लिए चिन्हित किया गया।


मार्च के अंत में रेणी गांव में पेड़ों के कटान के लिए गोपेश्वर में एक सभा का आयोजन किया गया जिसका नेतृत्व गोरा देवी ने महिलाओं के साथ मिलकर किया,और यहीँ से नीव पड़ी चिपको आंदोलन की और जिसकी जननी गोरा देवी बनी,
26 मार्च की सुबह उदय हुआ एक नए आयाम का – जब 26 मार्च की सुबह को वन विभाग के कर्मचारी रेणी गांव की और पेड़ों के कटान के लिए निकल पड़े, इस हल चल की खबर जैसे ही गोरा देवी को मिली वह घर गृहस्थी के कामो को छोड़ कर  अपनी 21 महिला साथियों और कुछ बच्चों के साथ जंगल की और चल पड़ी।

 वन-विभाग के कर्मचारी  और ठेकेदार अपने साथियों के साथ जंगल  के कटान की तैयारी में लगे ही थे की महिलाओं का जथा जंगल पहुंचा और वन कर्मचारियों से  गुजारिश करने लगा, पर काफी मनाने पर भी वह नहीं माने और गोरा देवी और उनकी साथियों को धमकाकर भागने  की कोशिश करने लगे!  और  उन्हीं में से एक ने गोरा देवी के शारीर पर बंदूक तान दी ।।

इस घटना के बाद  तो दृश्य का दूसरा रूप प्रकट होने लगा और आक्रोश बढ़ने लगा।
देखते ही देखते लोगों ने ऋषि गंगा के तट पर एक नाले पर बने पुल को भी उखाड़ फेंक दिया लेकिन फिर भी कर्मचारियों द्वारा गोरा देवी और उनके साथियों को धमकाया जाना जारी रहा लेकिन गोरा देवी पीछे नहीं हटी और डटी रही  अपने साथियों के साथ,

इस घटना के बाद वनों  के संरक्षण के लिए  लोंगों के मन में एक आक्रोश सा फैल  गया और लोग  इसके लिए  आगे आने लगे।
वन विभाग और लोगों के बीच काफी  वार्तालापों का दौर चला लेकिन यह सब  विफल रही और चिपको आंदोलन  धीरे धीरे एक मिसाल बन गया।


गोरा देवी और उनके साथी इस आंदोलन का प्रतीक बन गए
इस चिपको घटना के बाद स्त्रीयों ने  कुल्हड़ों से पेड़ों की  रक्षा के लिए जो कदम उठाये वो एक मिसाल बन गए    और विश्वभर में पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे,


 इसके बाद यह आंदोलन उत्तराखंड से शुरु होकर देश के कई अन्य राज्यों तक पहुंचा और सफल होता गया चिपको आंदोलन ने उत्तराखंड में वनों के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहीँ  चिपको जननी के नाम से प्रसिद्ध गोरा देवी अपने जीवन के अंतिम दिनों में काफी संघर्ष की स्थिति में और  काफी बीमार भी रही।


*अंत में  4 जुलाई 1991 को गोरा देवी ने अंतिम सांस ली*
भले ही गोरा देवी आज हमारे बीच मौजूद ना हो पर वह आज हमारे और रैणी गांव की हर महिला के अंदर जीवित है।
वन संरक्षण को लेकर गोरा देवी का यह कदम एक मिसाल बन गया और आज पूरे विश्व भर में चिपको आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा पहाड़ी नारी  और मदर ऑफ़ चिपको *गोरा देवी* के इस प्रयास और साहसिक कदम को हमारा सत सत नमन:

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